मेरा क्या है?


रसोई भी मेरी, मेहनत भी मेरी, 
समय भी मेरा, जले हाथ भी मेरे, 
पर खाने की पसंद किसी और की |


गीत भी मेरा, आवाज भी मेरी,
बचपन भी मेरा, जवानी भी मेरी,
पर इन गीतों में बात किसी और की |


खून भी मेरा, ताकत भी मेरी,
कोख भी मेरी, दर्द भी मेरा,
पर जन्मे बच्चे का नाम किसी और का |


भूख भी मेरी , प्यास भी मेरी ,
व्रत भी मेरा, रिवाज भी मेरा ,
पर सभी व्रतों – रिवाजों में नाम किसी और का |

दिल भी मेरा, चाहत भी मेरी ,
पर मैं बनी पहचान किसी और की |


शरीर भी मेरा जुबान भी मेरी ,
पर मैं बनी इज्जत किसी और की |


घर के हर ईंट – पत्थरों में, 
खून – कमाई भी मेरी,   
सपने भी मेरे, साथ भी मेरा,
पर मकान पर नाम किसी और का |


माँ – बाप के सुख – दुःख मेरे,
प्यार भी मेरा, लड़ाई भी मेरी, 
पर उनकी अंतिम यात्रा पर, 
कन्धा किसी और का |

प्रार्थना 

अदालत

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दिल्ली हाई कोर्ट की पहली महिला जज और भारतीय हाई कोर्ट के इतिहास में पहली महिला चीफ जस्टिस (हिमाचल प्रदेश) लीला सेठ (20 अक्टूबर 1930 – 5 मई 2017) ने ज़िंदगी को भरपूर जिया है। ‘घर और अदालत’ नाम की अपनी आत्मकथा में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के खुशनुमा पलों के साथ-साथ मुश्किलों का भी ज़िक्र किया है। पेश है कहीं अंतरंग, कहीं पेचीदा और कहीं हँसा देने वाली इस किताब से एक अंश।

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एक्टिविज़्म पर कुछ विचार

ऑल इंडिया विमेन्ज़ असोसिएशन  की कॉनफरेन्स (आई.ए.डब्ल्यू.एस.) एक ऐसी मंच है जहाँ देश भर से छात्र और अकादमिक अपने  रिसर्च पेपर प्रस्तुत करने आते हैं और देश भर में  जाने पहचाने शिक्षाविद, छात्र, अकादमिक और विकास क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं के कार्यकर्ताओं के साथ इनपर चर्चा करते हैं। इस कॉनफरेन्स में नारीवादी मुद्दों पर चर्चा होती है। इस साल आयोजित की गई कॉनफरेन्स के कुछ विषय थे – जेंडर और काम, विकलांगता, जेंडर और यौनिकता के सम्बन्ध, जेंडर और यौनिकता के सन्दर्भ  में नारीवादी सवाल इत्यादि।आई.ए.डब्ल्यू.एस. साल 1982 में एक सदस्यता आधारित  संस्था के रूप में शुरू हुआ था, और साल  2017 में उन्हें काम करते हुए 35 साल पूरे हो गए हैं।

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‘कलामे निस्वां’: मुस्लिम औरतों की सुलगती आवाजें

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर आपके सामने पेश है निरंतर प्रकाशन कलामे निस्वां से एक लेख. इस प्रकाशन में हैं उर्दू में लिखी मुसलमान औरतों की आवाजें, जिनका वैसे के वैसे हिन्दी में लिप्यन्तरण कर दिया गया है. ये आवाजें करीब सौ साल पुरानी हैं. ये मुसलमान औरतें अपनी दुनियाँ देख रही हैं, मज़े ले रही हैं उसकी नुकताचीनी भी कर रही हैं. इनमे हिचकिचाहट भी है तो कहीं वे बेख़ौफ़ भी नज़र आती हैं. ये खुदमुख्तार औरतें है जो कई बार अपने नाम से नहीं लिख पाती हैं. मगर फिर भी वे लिखती हैं, बोलती हैं.

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Experiences and Learnings from a Conference on Sustainable Development through Multilingual Education- Part 2

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This is the second part of this article where Prarthana shares her experiences and learnings at the 5th International Conference on Language and Education at UNESCO, Bangkok, where we presented a paper on ‘Breaking the Barriers of Languages in India’.

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